पश्चिम बंगाल के चुनावी घमासान में ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ने भारी जीत दर्ज की है. लेकिन पार्टी के लिए निराशा की बात यह है कि खुद ममता बनर्जी नंदीग्राम से चुनाव हार चुकी हैं. इसके बावजूद ममता बनर्जी राज्य की मुख्यमंत्री बनने को तैयार हैं. आइए जानते हैं कि यह कैसे संभव होगा.
बीजेपी कैंडिडेट शुवेंदु अधिकारी ने नंदीग्राम सीट की बहुचर्चित लड़ाई में ममता बनर्जी को हरा दिया है. लेकिन राज्य की 292 सीटों में से 213 पर टीएमसी जीत रही है जिससे ममता बनर्जी का मुख्यमंत्री बनना तय है.
अब कैसे बनेंगी सीएम?
ममता बनर्जी के पास अब भी मुख्यमंत्री बनने का रास्ता मौजूद है. यह रास्ता उन्हें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 164(4) से मिल सकता है. इस अनुच्छेद के मुताबिक कोई भी व्यक्ति यदि किसी राज्य का मंत्री बनता है तो उसे शपथ ग्रहण से अगले छह महीने के भीतर किसी ने किसी विधानसभा क्षेत्र से (या एमएलसी सदस्य के रूप में) चुनकर आना होगा.
अनुच्छेद 164(4) कहता है, ‘राज्य का कोई मंत्री यदि छह महीने बाद भी राज्य की विधानसभा का सदस्य नहीं बन पाता है तो उसे अपना पद छोड़ना होगा.’
संविधान के इसी प्रावधान के तहत ही ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बन सकती हैं. मुख्यमंत्री भी मंत्री ही माना जाता है, इसलिए उस पर भी यही नियम लागू होगा. उन्हें छह महीने के भीतर किसी ने किसी सीट से चुनकर आना होगा और इस चुनाव में भी यदि वह हार जाती हैं, तो उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ना होगा.
इसके पहले ये मुख्यमंत्री भी विधायक नहीं थे
इसके पहले भी कई नेता बिना विधायक बने किसी राज्य के मुख्यमंत्री का पद संभाल चुके हैं. इनमें उत्तर प्रदेश से राजनाथ सिंह, मुलायम सिंह यादव, मायावती, अखिलेश यादव और मौजूदा सीएम योगी आदित्यनाथ शामिल हैं. बिहार से लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी और नीतीश कुमार जैसे उदाहरण हैं. मध्य प्रदेश से कमलनाथ, महाराष्ट्र से उद्धव ठाकरे भी प्रमख उदाहरण हैं.
हाल में उत्तराखंड के सीएम बनने वाले तीरथ सिंह रावत भी किसी सदन के सदस्य नहीं हैं. ममता बनर्जी खुद जब साल 2011 में पहली बार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनीं तो वह विधायक नहीं थीं.
साल 2017 में जब योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो वह किसी सदन के सदस्य नहीं थे. वह अगले छह महीने के भीतर विधानपरिषद MLC के सदस्य बने. यही नहीं राज्य के दो उप-मुख्यमंत्री दिनेश शर्मा और केशव प्रसाद मौर्य भी शपथ के समय तक किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे और अगले छह महीने के भीतर वे एमएलसी चुने गए.
कई सीटिंग सीएम चुनाव हार चुके हैं
ऐसा भी पहली बार नहीं है कि कोई मौजूदा मुख्यमंत्री चुनाव हार गया हो. साल 2017 में गोवा के तत्कालीन मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पारसेकर चुनाव हार गए. हालांकि बीजेपी ने उनके नेतृत्व में सरकार नहीं बनाई और केंद्र से रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर को कमान संभालने के लिए भेजा गया.
साल 2009 में झारखंड में तो और मजेदार घटना हुई. बिना किसी सदन के सदस्य रहे शिबू सोरेन मुख्यमंत्री बने थे. लेकिन छह महीने के अंदर एक उपचुनाव में भी वह हार गए और उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ी. राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया.
साल 1970 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिभुवन सिंह भी इसी तरह छह महीने के भीतर एक उपचुनाव में हार गए थे और उन्हें अपना पद छोड़ना पड़ा था.
साल 2014 में भारतीय जनता पार्टी को झारखंड में जीत मिली, लेकिन सीएम पद के प्रमुख दावेदार अर्जुन मुंडा चुनाव हार गए. साल 1996 में केरल के विधानसभा चुनाव में एलडीएफ के मुख्यमंत्री पद के मुख्य दावेदर वी. एस. अच्युतानंदन चुनाव हार गए थे.
साल 2017 में बीजेपी हिमाचल प्रदेश में जीत गई, लेकिन उसके सीएम फेस प्रेम कुमार धूमल चुनाव हार गए, जिसके बाद जयराम ठाकुर को हिमाचल प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया.
साल 1952 में मोरारजी देसाई विधानसभा चुनाव हार गए थे, इसके बावजूद उन्हें बॉम्बे प्रेसिडेंसी जो बाद में महाराष्ट्र और गुजरात के रूप में विभाजित हुआ का मुख्यमंत्री बनाया गया.
उपचुनाव में भी हार गया सीएम तो
यदि कोई मुख्यमंत्री छह महीने के भीतर होने वाले किसी उप-चुनाव में भी हार गया तो उसे पद छोड़ना ही पड़ेगा. सुप्रीम कोर्ट ऐसे किसी प्रयास को पूरी तरह से गैर संवैधानिक बता चुका है, जिसमें किसी सीएम को बिना सदन का सदस्य रहे छह महीने से आगे का विस्तार दिया जाए. एक बार झारखंड में शिबू सोरेन और पंजाब में तेज प्रकाश सिंह ऐसी कोशिश कर चुके हैं.